आज फिर से आ पड़ी है वो जरुरत, बादलों के पार जाकर झाँकने की देखकर गहरा तिमिर क्या सोंचता है, छोड़ दे आदत वो अपनी काँपने की

गुरुवार, 17 मार्च 2011

ओशो -रहिमन धागा प्रेम का




"वही कुछ जानता , सीमा नहीं जो मानता "



                       नया स्वर खोजने वाले ! तलातल तोड़ता जा 
कदम जिस पर पड़ें तेरे ,सतह वह छोड़ता जा 
नयी झंकार की दुनिया  खतम होती कहां  पर
वही कुछ जानता है , सीमा नहीं जो मानता है               


वहां क्या है की फव्वारे जहां से छूटते हैं ?
जरा सी नम हुई मिटटी  की अंकुर फूटते हैं 
बरसता जो गगन से ,वह जमा होता मही में ,
उतरने को अतल  में क्यों नहीं हठ ठानता है ?

ह्रदय जल में सिमट कर डूब ,इसकी थाह तो ले 
रसों के ताल में नीचे उतर अवगाह तो ले 
सरोवर छोड़ कर तू बूँद पीने की खुशी में ,
गगन के फूल पर शायक वृथा संधानता है 











2 प्रतिक्रियाएँ:

Dr.Sushila Gupta ने कहा…

very nice........thanks

Adarsh Kumar Patel ने कहा…

thanks a lot to appreciate this .I am very grateful.........